पंछी भी मुख मोड़ चले
अपने नीड़ की ओर।
मैं खड़ी अटेरी पर
थामें शाम की डोर।
मन व्याकुल हो चला
पी का कहॉं है ठौर ?
ये एक शाम की बात नहीं
नित हो जाती भोर ।
पलकें रह-रह राह बुहारती
कंगन भी करतें हैं शोर।
कब ऑंखों की प्यास बुझेगी ?
कब नाचेगा मन मोर ?
ये एक शाम की बात नहीं
नित मन होता भाव विभोर।
किस दिगंत आवाज लगाऊॅं ?
सुन ले ना कोई और
मन का पीर मन ही जाने
पिय न समझे,न कोई और
चार पहर है गुजर चुका
कब गूॅंजेगा मधुकर का शोर?
ये एक शाम की बात नहीं
नित हो जाती भोर ।
-------अर्चना सिंह जया