Monday, September 19, 2016

एक शाम (कविता )


पंछी भी मुख मोड़ चले
अपने नीड़ की ओर।
मैं खड़ी अटेरी पर
थामें  शाम की डोर।
मन व्याकुल हो चला
पी का कहॉं है ठौर ?
ये एक शाम की बात नहीं
नित हो जाती भोर ।
    पलकें रह-रह राह बुहारती
    कंगन भी करतें हैं शोर।
    कब ऑंखों की प्यास बुझेगी ?
    कब नाचेगा मन मोर ?
    ये एक शाम की बात नहीं
    नित मन होता भाव विभोर।
किस दिगंत आवाज लगाऊॅं ?
सुन ले ना कोई और
मन का पीर मन ही जाने
पिय न समझे,न कोई और
चार पहर है गुजर चुका
कब गूॅंजेगा मधुकर का शोर?
ये एक शाम की बात नहीं
नित हो जाती भोर ।                  
                       
                                         -------अर्चना सिंह जया    

Tuesday, September 13, 2016

हरि हो गति मेरी..............गौरी दिवाकर की प्रस्तुति

गौरी दिवाकर अंतर्राष्ट्रीय  स्तर की नृत्यांगना है, आज उसकी पहचान राष्ट्र  में ही नहीं विश्व में भी प्रख्यात है। जैसा कि उसके नाम में ही ख्याति का सार छुपा है। गौरी यानि शिवा, अम्बिका शक्ति की अपार भंडार, दिवाकर यानि सूर्य,भानू जिसकी योग्यता में ही सूर्य-सा तेज फिर किसी भी प्रकार की बाधा उसे अग्रसर होने से नहीं रोक सकी। हर भीड़ को चीरती हुई वह अपने लक्ष्य तक पहुॅंच पाने में सक्षम हो पाई और आज विश्व के कोने-कोने तक अपने शौर्य का पंचम लहरा पाने में सफल हो पाई है। जमशेदपुर से दिल्ली तक का सफर संघर्ष पूर्ण भी रहा पर हौसला कभी थमने को नहीं आया, आज ये उसी मेहनत का परिणाम है। गौरी दिवाकर को 2008 में उस्ताद बिस्मिलाह खॉन युवा पुरस्कार संगीत नाटक एकादमी की तरफ से नवाज़ा गया।



                ये बात उस शाम की है जब मेरा मन प्रेमभाव से यूँ रंग गया था जैसे शहद दूध में, मिसरी जल में घुल जाती है। अगर मैं श्रेय दूॅ तो यह 15 जनवरी 2016, 7.30 की उस शाम को जाता है जहॉं अदिति मंगलदास जी के सानिध्य में मिस गौरी दिवाकर द्वारा प्रस्तुत नृत्य ने श्री राम सेंटर,नई दिल्ली के हॉल में सुफियाना समॉं बॉंध दिया था। मैं पूर्ण विश्वास के साथ कह सकती हूॅं कि उस हॉल में उपस्थित सभी दर्शकगण का मन उस पल प्रेम रंग से भींग चुका था। उस संध्या की बेला में समय की गति जैसे मद्धिम हो चली थी, देखने वालों की ऑंखें कौंध-सी गई इसका पूरा श्रेय गुरु बिरजू महाराज जी , जयकिशन महाराज जी  और अदिति मंगलदास जी को जाता है,जिनके आशीष  की छाया सदैव गौरी दिवाकर पर बनी हुई है। साथ ही गौरी की असीम प्रयास व कठिन परिश्रम ही है जो उसे इस मुकाम़ तक पहुॅंचाया।
                         कृष्ण  का प्रेम संदेश जो विश्वविख्यात है उसी संदेश की प्रेम वर्षा नृत्य और संगीत के माध्यम से हो रही थी। नृत्यांगना गौरी दिवाकर की गति हरि की ओर ही हो चली थी, दर्शकगण तन-मन से हरि के रंग में तल्लीन हो रहे थे। श्री समीउल्ला खॉन ने तो अपनी मघुर संगीत का जादू ही बिखेर दिया। गौरी के अन्य साथीगण योगेश गंगानी,आशीश गंगानी व मोहित गंगानी जी का सहयोग भी सराहनीय था। गौरी दिवाकर के हावभाव ,ताल और खॉन जी का स्वर दोनों ही लोगों के तन-मन के तार को झंकझोर रहे थे। नृत्य व संगीत दोनों ही एक रंग हो चले थे, तालियों की गूॅंज हौसले को बुलंद करने का साहस दे रहे थे। नृत्य की गति थमने को नहीं आ रही थी। शाम की वो छटा ने धर्मों के बंधनों से परे कहीं ये  स्पष्ट  करते नजर आ रहे थे कि प्रेम का रंग एक ही है इसका कोई मज़हब नहीं होता । उसका नृत्य अध्यात्म के संपर्क में ला सकने में सक्षम हो चला था। हम इंसान मज़हबों की डोर से इसे बॉंधने की भूल कर जीवन रस का आनंद लेना ही भूल जाते हैं। सच,
         धर्मों के बंधन से ,परे थी वो शाम।
         कानों में रस घोलती स्वर ,थाप व ताल ।
नृत्यांगना की लय-ताल की गति सचमुच हरि की ओर खींचती चली जा रही थी, वो तो पूरी तरह से ‘‘हरि हो गति मेरी ..........’’ में गतिमान हो चली थी,एकाकार हो चली थी। नृत्य की भावाभिव्यक्ति सभी के  हृदय  को छू रही थी, ऐसा प्रतीत हो रहा था कि सभी उपस्थित लोग हरि हो गति में..... यानि वो भी हरि को समर्पित होते जा रहे थे ,सच इतनी कम उम्र में ही ये महारत हासिल करना अपने आप में ही चुनौति पूर्ण कार्य है। समय-समय पर उसकी प्रस्तुति देश-विदेश में देखने को मिलती है। गौरी जैसी महान कलाकारा स्वयं के साथ-साथ माता-पिता, गुरु व देश का नाम भी रौशन करती है।

                                                                             .....................अर्चना सिंह जया




Thursday, September 8, 2016

बेटी का जन्म ( कविता )

 
न जाने मुझे ये कैसा भ्रम हुआ ?
गॉंव घरों में बॅंटते देख लड्डू
मैंने पूछा,‘आज कैसा शगुन हुआ?’
हॉं,‘आज एक बेटी का जन्म हुआ।’
चलो देर से ही सही,नया पहल हुआ।
बेटी बचाने की जागरुकता तो आई,
मानवता की सोच, कुछ तो बदल पाई।
माता पिता के दिलों में, जश्न  दीप
चहुदिशा  करने लगे प्रदीप्त ।
ये जानकर मन को सुकून हुआ,
बेटियों के सपने भी अब सॅंवरने लगे।
रियो ओलंपिक का प्रभाव देखो हुआ.
सिंधु, साक्षी व दीपा की चाह दिलों में हुई।
बेटियों को मिला सम्मान अपने ही घरों में
और देश विदेश की देखो शोभा हुई।
पुत्री भी कर सकती, वंश का नाम रौशन
जो परिचय दे. वो महिला सशक्तिकरण।
अवनी, भावना व मोहना ने अंतरिक्ष तक
देश के ध्वज को दिया सम्मान,
पिता के दिलों में गर्व ने लिया स्थान,
‘टीना डावी’ जैसी पुत्री ने बढ़ाया मान ।
देश की बालाओं को देकर हाथ
आओ दिखाएॅं उन्हें पाठशाला का मार्ग ।
बेटी को बचाना ही मात्र नहीं है उद्देश्य,
शिक्षित कर उन्हें बनाना है और सशक्त।
पुत्री के जन्म पर भी होंगे नृत्य-संगीत
जनसंचार में लहरा देंगे यह नव संदेश।

                                      ............  अर्चना सिंह ‘जया’

Sunday, September 4, 2016

शिक्षक को प्रणाम ( कविता )

      

गुरुजन हैं मंदिर समान
शिक्षक को शत-शत प्रणाम,
ज्ञान की वे नित ज्योति जलाते
उज्ज्वल हमारा भविष्य बनाते।

सत्य, प्रेम का पाठ पढ़ाते
सदा सन्मार्ग की राह दिखाते,
नेहरु,गॉंधी, वीर सुभाष 
जैसा बनना हमें सिखाते।

कहते विद्या धन है सागर समान
बढ़ती ही जाए जो करो तुम दान
विद्या का करके तुम सम्मान
बढ़ाओ माता पिता व  ,
गुरुजन का मान 
                 
                          -------अर्चना सिंह
            
        03 सितम्बर 2005  राष्ट्रीय  सहारा,‘बाल उमंग’ पृष्ठ पर प्रकाशित हो चुकी है ।

Wednesday, August 31, 2016

अब तो कर ले अपने मन की ( कविता )

                 

चल सोच बदल जीवन की,
अब तो कर ले अपने मन की।
न तो नौकरी की चिंता सिर पर ,
न बच्चों की किलकारी सुनाई देती ।
अब न रही भाग-दौड़ जीवन की ,
अब तो कर ले अपने मन की।                      
सदा तू जीआ औरों की खातिर ,
रात की नींद दी बच्चों की खातिर ।
प्रातः सर्वप्रथम उठ तू जाती  ,
अब तो कर ले अपने मन की।                      
पिता ने जिम्मेदारी पूरी कर ली,
मॉं भी दायित्व भरपूर निभा ली।
इस पल भी औरों की सुनते,
चल,अब तो कर ले अपने मन की ।
घर-ऑगन है अब भी अपना,
प्रातः चिड़ियों की चूॅंचॅूं सुन चल।
शांत मन से सूर्य प्रणाम कर,
अब तो कर ले अपने मन की।
दोनों प्रातःसैर को चल लें,
भूले बिसरे किस्से याद कर लें।
नोंक-झोंक आज भी है होती
पर, अब तो कर ले अपने मन की।
बाग-बगीचे की सैर हम कर लें
खुलकर हॅंस लें ,खुलकर जी लें।
यार-दोस्त संग कुछ पल रह ले
क्यों न कर ले अपने मन की ?
सत्तर-अस्सी के पड़ाव पर  
इच्छा कहॉं थमने को आती ?     
चिंता हम क्यो करते कल की ?  
अब तो कर ले अपने मन की।
कल,आज और कल की छोड़,
रौशन कर हर पहर जीवन की ।        
सोच बदल, चल अब जीवन की             
अब तो कर ले अपने मन की।

                           ----- अर्चना सिंह‘जया’